
समय का सब खेल, यह तो एक रेल है,
चलती जाती सदा, न ठहराव का मेल है।
गुज़रा जो स्टेशन, वो लौट नहीं पाता,
आने वाले मोड़ पर सब कुछ बदल जाता।
छोटी-सी यात्राएं, बड़े-बड़े सपने,
कभी हंसी के पल, कभी आंसुओं के अपने।
रफ़्तार इसकी तेज़, थाम सको तो थाम लो,
वरना बहाव संग, खुद को अंजाम दो।
हर डिब्बे में जीवन के रंग बिखरे,
कुछ पास बैठे, तो कुछ दूर हैं ठहरे।
कुछ मुसाफिर मिलते, तो कुछ बिछड़ जाते,
संग यादों की गठरी छोड़ जाते।
पटरियों की खड़खड़ाहट जीवन की तान,
हर मोड़ पर सिखाए नई पहचान।
समय का पहिया घूमे अनवरत,
जो समझ ले इसे, वो बने समर्थ।
तो आओ, इस रेल के राही बनें,
हर पल को जीएं, हर क्षण को गिनें।
समय के इस खेल में खुद को पाएं,
खुशियों
के स्टेशन पर ठहर जाएं।
राकेश कुमार प्रजापति