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दर्द भरी कविता: बेजुबानों की पुकार –राकेश कुमार प्रजापति

पलके निहारती, अश्कों का समंदर,

पलके निहारती, अश्कों का समंदर,
जिन्हें बनाया हमने, सिर्फ भोजन का संदल।
वे भी तो जीते थे, सांसों के सहारे,
उनकी भी थीं आंखें, सपनों के किनारे।

खामोश जुबां, पर सवाल करते हैं,
क्या हमने ही तुम्हें जीवन दिए हैं?
जंगल के राजा, या लोभ के शिकारी,
क्या अब रह गया है, यही तुम्हारी कारी?

मासूम थे, न समझ सके छल,
हमने काटा उन्हें, और भरा अपना कल।
रोते हैं वो, पर सुनता कौन?
इंसानी मन तो बन गया है बेजान।

क्या हमने सोचा, दर्द उनका भी होगा?
जिन्हें हमने रौंदा, उनके सपनों का झोंका।
क्या सच में जरूरी है, उनका ये अंत?
या हमें बदलनी होगी अपनी ये कुंठा?

आओ अब भी संभल जाएं,
उनकी आंखों में जीवन लौटाएं।
पलकों से देखें, बेजुबानों का दर्द,
और कर दें इस अन्याय का अंत।

                                 राकेश कुमार प्रजापति

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