उत्तर प्रदेशलखनऊ

भारत का कॉन्ट्रैक्ट किलर जो इसराइल की मोसाद से भी तेज़ है

  1. सिनेमा की दुनिया में एक मशहूर मर्सिनरी हुआ – रॉनिन. 1998 में इस रोल को प्ले किया रॉबर्ट डीनीरो ने. एक्स-सीआईए. फ्रीलांसर. एक जॉब के सिलसिले में कहता है – I never walk into a place I don’t know how to walk out. दर्शक के लिए ‘द फ्रीलांसर’ के केंद्रीय पात्र अविनाश की ये दुनिया ऐसी ही है कि प्रवेश करना और निकलना दोनों सुगम रहता है. आप देखने बैठते हैं और खत्म होने पर थोड़ा याद रखते हुए उठ जाते हैं. ऐसा नहीं है कि सीरीज़ प्रडिक्टेबल है, लेकिन सिर में छा जाने वाली खुमारी नहीं है, मदहोशी नहीं है, बस अच्छी लगती है, आप देखते रहते हो.
  2. सीरीज़ में अविनाश को एक बड़ा कॉन्ट्रैक्ट मिलता है. वह भी मोसाद से – इसराइल की कुख्यात गुप्तचर एजेंसी. मोसाद का बूढ़ा प्रतिनिधि अविगोम कहता है कि अमेरिकी मिलिट्री, स्पेशल फोर्सेज़ के लोगों की हिफ़ाज़त में बंद एक टारगेट को मारना है. ऐसी परियोजना जो भारतीय कॉन्टेंट परिदृश्य में सुनी नहीं. वह फोन पर अपने गुरु डॉ. ख़ान (अनुपम खेर) से पूछता है – “क्या करें?” डॉ. ख़ान कहते हैं – “इसे भली-भांति समझ लेते हैं. वो चाहता है कि तुम तालिबान-कंट्रोल्ड काबुल जाओ. और वहां नेटो कंट्रोल्ड काबुल एयरपोर्ट के अंदर यूएस मिलिट्री की कस्टडी में, एक हिज़बुल्ला एजेंट को ढूंढों, और न्यूट्रलाइज़ करो. इंट्रेस्टिंग!” अविनाश पूछता है – “क्या कहते हैं डॉक्टर?” इस पर डॉ. ख़ान कहते हैं – “करना चाहिए. प्रोफाइल बढ़ेगा”. तो अविनाश करता है. लेकिन क्या उसका और सीरीज़ का प्रोफाइल दर्शक के लिए बढ़ पाता है?
  3. औपचारिक रूप से यह एक एक्शन थ्रिलर सीरीज है. इसका एक्शन वाला भाग, हिज़बुल्ला एजेंट को मारने वाले अगले सीन पर सर्वाधिक टिका होता है. यही अविनाश को स्थापित करेगा. यही सीरीज़ का अंतर्राष्ट्रीय दायरा, सक्षमता सबकुछ स्थापित करेगा. अब यहां आवश्यकता है सैम हारग्रैव जैसे ‘एक्सट्रैक्शन’ माफिक एक्शन की (चूंकि जब अविनाश पूछता है – दुनिया के सर्वश्रेष्ठ को बाहरी लोगों की जरूरत क्यों पड़ गई, तो मोसाद का अविगोम ख़ुद कहता है – कि तुम हमसे ज्यादा तेज़ी से ये खत्म कर सकते हो). या फिर अविनाश के ही हमपेशा द ट्रांसपोर्टर या द एक्सपेंडेबल्स जैसे करारे, विस्फोटक, अति-वास्तविक लगने वाले एक्शन की. जिसके लिए चाहिए सिनेमैटोग्राफर का ख़ूब हिलता, बेचैन करने वाला हैंडहैल्ड कैमरावर्क और एक्शन डायरेक्टर (अब्बास अली मोगल, जेरेमी विगोट) का आविष्कृत शार्प एक्शन. चाहे एडिटर को एएसएल (एवरेज शॉट लेंथ) 2 सेकेंड प्रति शॉट जितना कम क्यों न करनी पड़े, चाहे एक सेकेंड के शॉट में दर्जन कट क्यों न लगाने पड़ें. द फ्रीलांसर पारंपरिक तरीके से फिल्माई गई है. वाइड एंगल और क्लैरिटी को अहमियत देती है.
  4. लेकिन यहां जो सीन सीरीज का सबसे हाई पॉइंट होना था, वो सबसे कम याद रह जाने वाला हो जाता है. अमेरिकियों की स्पेशल टास्क फोर्स 1-194, जिसे हेकड़ी में टास्क फोर्स बास्टर्ड्स भी बुलाया जाता है, उसके एलीट सोल्जर प्लास्टिक के पुतलों की तरह खड़े रहते हैं और अविनाश की टीम की गोलियां ठक-ठक खाते जाते हैं, गिरते जाते हैं. अविनाश की टीम काबिल है ये सारा एहसास सिद्ध करने का बोझ फिर काबुल एयरपोर्ट की लोकेशन, ढेर सारे अफगान एक्स्ट्राज़, बड़े प्लेन हैंगर्स और गियरधारी नेटो सोल्जर्स के विजुअल्स पर आ जाता है. लेकिन उससे बात नहीं बनती. ये सीरीज़ यह दावा भी नहीं कर सकती कि हम एक्शन को रियलिस्टिक रखना चाहते थे. हीरो ग्लोबल मर्सिनरी है, टॉप एजेंसियां उसकी सेवाएं लेती हैं, चुटकी बजाकर पाकिस्तान के जनरल को किडनैप करके बेच देता है, द फ्रीलांसर के नाम से कुख्यात है, ISIS के एरिया में जाकर किसी को निकालकर बाहर ले आने वाला है, वहां फिर रियलिस्टिक को आप कैसे डिफाइन करोगे?
  5. फ्रीलांसर एक एस्केप ड्रामा भी है. एक एक्स्ट्रैक्शन एक्शन ड्रामा भी है. इन दोनों कैनवस पर वह कैसे निवृत होती है? एस्केप ड्रामा के लिहाज से क्या अचीव किया जाना होता है, वह आप ‘नॉट विदाउट माय डॉटर’ (1991) में देखकर समझें. दोनों में हूबहू वही संदर्भ है. वेस्टर्न वैल्यूज़ में पली-बढ़ी एक युवती, साथ पढ़े एक मुस्लिम लड़के से शादी कर लेती है. वो उसे बहला फुसलाकर एक कट्टर इस्लामी देश में ले जाता है. फिर कहता है, मैं झूठ बोलकर तुम्हे लाया हूं, अब तुमको यही रहना होगा. ‘नॉट विदाउट माय डॉटर’ में उस महिला की एक बेटी भी होती है और वो अमेरिकी क्रिश्चियन होती है जिसे पति ईरान ले जाता है, खोमैनी के राज में. उसे वहां से एस्केप करना है. द फ्रीलांसर में वो लड़की मुंबई की भारतीय मुसलमान होती है, और पति उसे सीरिया ले जाता है. ऐसी घुटन और ग़ुलामी भरी नारकीय परिस्थितियों में एक महिला की क्या मनःस्थिति होगी उसे सैली फील्ड ने टिपिकल ड्रमैटिक्स के साथ ही सही लेकिन बहुत अच्छे से निर्मित किया था. द फ्रीलांसर में यंग एक्टर कश्मीरा परदेसी ये मनःस्थिति अच्छे से प्रकट नहीं कर पातीं, अन्यथा वे ठीक हैं. ISIS की एड़ी तले जो साइकोलॉजिकल पैनिक इंसान महसूस करता है, वो क्लाइमेट पूरी तरह निर्मित नहीं होता.

फिर दूसरा कैनवस है – एक्स्ट्रैशन एक्शन ड्रामा का. उसमें ‘अर्गो’ (2012) एक डीसेंट डेस्टिनेशन है. बहुत ज्यादा लेयर्स न होते हुए भी उसमें ईरानी स्टेट का भय दर्शक को डराता है. बेन एफ्लेक की अपने लोगों को एक्सफिल्ट्रेट कराते हुए हालत खराब हो जाती है. जब तक विमान उड़ नहीं जाता, तब तक ख़ौफ बना रहता है, जैसा नीरज पांडे की ही ‘बेबी’ में बना रहता है. द फ्रीलांसर का एक्स्ट्रैक्शन ड्रामा डीसेंट होता है लेकिन उसमें उतनी टेंस कश्मकश नहीं होती. नाखून नहीं खा जाते आप अपने. धीमा धीमा प्लेज़र मिलता है. इस जॉनर में तेज़ गति की आकांक्षा को कहीं सीरीज़ खिंची और धीमी भी लगती है. शिऱीष थोराट की जिस किताब ‘अ टिकट टू सीरिया’ पर ये आधारित है, वह भी ऐसी ही कम थ्रिलिंग परंतु इंगेजिंग थी.

यह ‘अ वेडनेसडे’ वाले नीरज पांडे का क्रम-विकास भी है और कमिटमेंट भी कि सीरीज़ में बेस्ट डीटेल्स या कहें तो खूब डीटेलिंग है. एक सीन में अविनाश सीआईए से अपने प्रोटेक्शन के लिए एक लॉयर तक बुलाता है और वीडियो पर बयान दर्ज करता है ताकि भविष्य में किसी इंटरनेशनल या अमेरिकी कोर्ट में सीआईए के खिलाफ तक जा सके. यह बात इस जॉनर की इंडियन कहानियों में नहीं देखी. न तो जवान में, न टाइगर-3 में, न वॉर में, न उससे पूर्व की फ़िल्मों में. हां, ये फ़िल्में स्वैग और स्टाइल में द फ्रीलांसर से आगे हैं. लेकिन द फ्रीलांसर स्वैग के बारे में है भी नहीं. ये रियलिस्टिक होने का एक आवरण बनाकर रखना चाहती है. उसके किरदार साधारण टीशर्ट, हवाईयन शर्ट्स, सलवार कमीज़, टॉप-स्कर्ट, कार्गो पैंट्स, वुडलैंड के जूते पहनते हैं. हां, इंग्लैंड के रॉयल मिलिट्री कॉलेज ऑफ साइंस से पढ़े होने, ग्लोबल सिक्योरिटी में मास्टर्स करके मर्सिनरी बन जाने के चलते अविनाश और उसके दोस्तों के घर पॉश ज़रूर हैं और ये अधिकतर इंटरनेशनल ट्रैवल ही करते हैं

अविनाश एक भारतीयता से भरा मर्सिनरी है. वह सीधा-सादा है. फिज़ूल हिंसा, ख़ून-खराबा नहीं करता. जितना अत्यंत आवश्यक हो उतना ही. एक सीन में कुछ लोग उसे चेस कर रहे होते हैं, तो उसका पहला प्लान उन्हें मारने का नहीं, उनसे बचकर भागने का होता. जब संभव नहीं होता तब वो उन्हें पीटता है.

 

सीरीज़ में नीरज पांडे, रितेश शाह, बेनज़ीर अली फ़िदा की राइटिंग है और डायरेक्टर भव धूलिया की संयुक्तता रही होगी. राइटिंग में कुछ सीन्स और सिचुएशंस हैं जो भा गईं.

 

एक सीन है जिसमें अविनाश अपनी पत्नी से मिलने एक स्पेशल ट्रीटमेंट सेंटर में जाता है. उसके हाथ में गुलाब के फुलों का बुके होता है. वो एक दरवाजा पार करके अंदर जाता है, रुकता है, एक गुलाब निकालता है औऱ बाकी बुके वहीं फेंक देता है. फिर दो दरवाजे पार करके जाता है, रुकता है, कुछ सोचता है और वो एक गुलाब भी वहीं रख देता है. फिर खाली हाथ ही पत्नी के पास जाकर बैठ जाता है. उसका माथा चूमता है. ये सीन अब तक ज्यों अनफोल्ड हुआ है वो साधारण सा है, लेकिन ये इस पात्र की मनस्थिति, दुविधा, पत्नी की बीमारी और कहानी सुनाने वालों के बारे में कुछ कहता है. कि वे रस लेकर बात सुना, बता रहे हैं. उन्हें सीधा पॉइंट पर आने की जल्दी नहीं. फिर वह पत्नी का माथा चूमता है, तो वो कहती है, मुझे पता था तुम आज आओगे. वो पूछता है – कैसे पता था? तो कहती है – बस दो मिनट पहले वहां सामने एक इंद्रधनुष था.

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