धर्म-आस्था

दीपावली: खुशहाली की रोशनी और दीप-दान की परंपरा

शिवानी सिंह समाचार लेखक

मनुष्य बेहतरी की इच्छा के कारण घोर अमावस्या के अंधेरे पर विजय प्राप्त कर सुख-समृद्धि एवं ज्ञान का दीपक जलाना चाहता है। हर तरह की बुराई के अंधेरे को दूर करने के लिए और चतुर्दिक ज्ञान एवं समृद्धि का प्रकाश फैलाने के लिए मनुष्य अपनी ओर दीप जलाकर दीपावली मनाता है।

इस बार हम ऐसे समय में दिवाली मना रहे हैं, जब देश के कई हिस्सों में वायु प्रदूषण के कारण लोगों का दम घुट रहा है। शिक्षण संस्थान बंद हो गए हैं। जबकि दिवाली का त्योहार भीतरी और बाहरी मलिनता को दूर कर ज्ञान और चेतना का दीपक जलाने का त्योहार है। चहुंओर खुशहाली की रोशनी फैलाने का पर्व है।

हमारे देश में जितने भी पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं, उनका प्रकृति और कृषि संस्कृति से बहुत गहरा संबंध है। दिवाली का त्योहार वर्षा के बाद आने वाली शरद ऋतु में मनाया जाता है। हमारे देश में वर्षा ऋतु का बहुत ज्यादा महत्व है, क्योंकि बारिश की बूंदें न केवल हमारे मन-प्राण को पुलकित करती हैं, बल्कि हमारे देश की समृद्धि एवं संपन्नता का बीजारोपण भी करती है। शरद ऋतु में हम जिन फसलों को घर लाते हैं, वे फसलें वर्षा ऋतु के दौरान ही लगाई जाती हैं। वर्षा ऋतु में हमारी धरती नाना प्रकार की संपत्ति व समृद्धि का गर्भधारण करती है। वर्षा ऋतु के उपरांत पृथ्वी वसुधा बन जाती है। और शरद ऋतु के आते ही वह धन-धान्य से हम सबको समृद्ध एवं संपन्न बनाती है।

 

शरद ऋतु में आकाश निर्मल हो जाता है, नदियों-तालाबों का जल निर्मल हो जाता है। वृक्ष-वनस्पतियां विभिन्न प्रकार के फल-फूलों से लद जाती हैं। कमल, कुमुद, हरसिंगार आदि विभिन्न प्रकार के फूलों से पृथ्वी महक उठती है। फलों से, गन्ने से, धान से समाज के हर वर्ग में संपन्नता का आगमन होता है। ऐसे ऋतु में मनुष्य स्वयं उदीप्त हो उठता है और जो कुछ है, उससे बेहतर करने की सोचने लगता है। इसी बेहतरी की इच्छा के कारण वह घोर अमावस्या के अंधेरे पर विजय प्राप्त कर सुख-समृद्धि एवं ज्ञान का दीपक जलाना चाहता है। हर तरह की बुराई के अंधेरे को दूर करने के लिए और चतुर्दिक ज्ञान एवं समृद्धि का प्रकाश फैलाने के लिए मनुष्य अपनी ओर से दीप जलाकर दीपावली मनाता है।

 

हमारे यहां सदियों पुरानी देसी चिंतन की जो परंपरा है, उसमें हम प्राकृतिक स्थितियों और उनसे हमारे मन में जो भावनाएं उपजती हैं, उन्हें प्रतीकों में अभिव्यक्त करते हैं। और ये प्रतीक देवी-देवता के रूप में होते हैं। दीपावली के त्योहार में मुख्यतः महालक्ष्मी का पूजन किया जाता है। इस महालक्ष्मी के तीन रूप हैं-लक्ष्मी, सरस्वती और काली। ये तीनों वस्तुतः आद्य शक्ति के रूप हैं। ये विभिन्न रूपों में विभिन्न कार्यों को संपन्न करती हैं। सरस्वती ज्ञान की उज्ज्वलता का प्रतीक हैं, लक्ष्मी धन-धान्य और समृद्धि का प्रतीक हैं, और काली संहार का प्रतीक हैं। भारतीय चिंतकों ने इन तीनों देवियों का रंग-रूप और कार्य भी अलग-अलग बताया है। सरस्वती का वर्ण श्वेत है, लक्ष्मी का वर्ण अरुण है और काली का वर्ण काला यानी श्याम है। ये तीनों क्रमशः ज्ञान, इच्छा और क्रिया का प्रतीक हैं। ये तीनों देवियां सृष्टि की गतिमानता में अपनी ओर से सहायता करती हैं।

 

हमारे देश के मध्य भाग में दीपावली में लक्ष्मी की पूजा की जाती है, जबकि इसी दिन पश्चिम बंगाल में काली की पूजा की जाती है। काली संहार की देवी हैं, वह शक्ति स्वरूपा हैं। लेकिन अगर हम केवल शक्ति की उपासना ही करने लगें, तो उससे हमारी उन्नति का लक्ष्य पूरा नहीं होता। मानव जाति के विकास और उन्नति के लिए कल्याण भी जरूरी है। इसलिए शक्ति स्वरूपा काली यदि कल्याण के देवता शंकर के साथ मिलकर रहें, तभी मानव जाति का विकास हो सकता है। यदि हमारे पास केवल शक्ति हो और हम मानव कल्याण की कामना न करें, तो मानव जाति का विकास भला कैसे संभव हो सकता है!

 

हम सबने एक पुराना चित्र देखा होगा, जिसमें काली कपाल मुद्रा धारण किए हुए हाथ में नरमुंड और खप्पर लिए शंकर के वक्ष पर नृत्य कर रही हैं। यह नृत्य विनाश का नृत्य है, सब कुछ समाप्त कर देने का नृत्य है। दीपावली के मौके पर ये सब बातें मैं इसलिए कर रहा हूं कि जिस प्रदूषण का जिक्र मैंने ऊपर किया है, वह प्रदूषण विनाश का प्रतीक बन गया है। और यह कितनी बड़ी विडंबना की बात है कि जिस समय हम दीपावली का उत्सव मना रहे हैं, उस समय प्रदूषण अपनी चरम अवस्था में है, मानो हवा में जहर घुल गया हो।

 

यह प्रदूषण इतना चरम है कि मानो पूरा वातावरण एक गैस चैंबर में तब्दील हो गया है। गैस चैंबर का जिक्र करने से बहुत से लोगों के मन में नाजी शासक हिटलर की याद ताजा हो उठी होगी। हिटलर की याद आते ही मन इस आशंका से कांप उठता है कि कहीं यह प्रदूषण शंकर (कल्याण) विहीन शक्ति (संहार) का प्रतीक तो नहीं बनता जा रहा है!

 

मानव-निर्मित यह प्रदूषण अपने प्रभाव में इतना गहरा है कि इसने मानवीय चेतना तक को आच्छादित कर लिया है। आप देख सकते हैं कि एक तरफ रूस और यूक्रेन का युद्ध हो रहा है, दूसरी तरफ गाजा में मानवीय संहार का तांडव हो रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव जाति के लिए विनाशक इन युद्धों में विशाल शक्तियों वाले देश प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से शामिल हैं। ये शक्तियां अपने विरोधियों को पूरी तरह नष्ट करके ही अपनी विजय पताका फहराना चाहती हैं। एक तरफ जब बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण जलवायु परिवर्तन की घटनाएं मानव अस्तित्व के लिए खतरा बनी हुई हैं, ऐसे में क्या सामंजस्य, संवाद के जरिये इन युद्धों को टाला नहीं जा सकता?

 

बहुत पुरानी बात नहीं है, शीत युद्ध के समय दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई थी। एक तरफ सोवियत संघ था, दूसरी तरफ अमेरिका। एक समय तो ऐसा लगा कि अब कभी भी परमाणु युद्ध छिड़ सकता है, लेकिन हॉटलाइन पर कैनेडी एवं ख्रुश्चेव के बीच बातचीत हुई, दोनों नेताओं ने समझौता किया और युद्ध टल गया। आज फिर मानव अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। यह एक ऐसी अमावस्या है, जिसका फिलहाल अंत नहीं दिख रहा है, लेकिन एक क्षीण-सी उम्मीद है कि इस अंधेरे पर भी विजय पाई जाएगी। इस महाविनाश के बीच दीपावली के सांस्कृतिक मूल्यों की महत्ता को समझने की बड़ी जरूरत है।

 

मुझे अज्ञेय की एक छोटी-सी कविता ‘दूज का चांद’ याद आ रही है, जिसकी पंक्तियां हैं- मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया/तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आंगन में/सहमा-सा रख दिया गया। हम सबको अपनी ओर से हर बुराई के अंधेरे को मिटाने, मानवजाति के कल्याण और चतुर्दिक वास्तविक सुख-समृद्धि का आलोक फैलाने के लिए दिवाली के त्योहार पर दीप दान करना चाहिए। सबको दीपावली की शुभकामनाएं!

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